छूटते पदचिन्ह
पदचिन्ह. गणतंत्र दिवस 26 जनवरी पूरे देश में एक राष्ट्रीय पर्व मात्र बनकर रह गया है क्योंकि इस पर्व की गरिमा दिन पर दिन गिरती जा रही है। ऐसा लगता है कि इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित भारत माँ के वीर सपूतों के पद चिन्हों से देश छूटता जा रहा है। आज की सामाजिक व्यवस्थाएँ, अनैतिक धारणाएँ, अमानवीय संवेदनाएँ गिरते मानवीय मूल्य और उस पर उफ!!! ये राजनीतिक भूचाल इस देश की अस्मिता को कहाँ ले जायेंगे कुछ पता नहीं!! बड़े ही आत्मग्लानि से भरे हृदय से यह लिखना पड़ता है कि कहाँ तो वह विराट व्यक्तित्व लौह पुरुष' सरदार वल्लभ भाई पटेल ने व्यथित, पीड़ित, शोषित धरती माँ के घावों को भरने की कोशिश की है। भारतीय जनमानस के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर टुकड़े-टुकड़े में बिखरे भारत को राजतंत्र की बेड़ियों से मुक्त कर, लोकतंत्र की श्रृंखला जोड़ने में जो सच्चा पुरुषार्थ किया, आज वही देश उनके ही पदचिन्हों को अपने क्षुद्र स्वार्थ की भेंट चढ़ा रहा है! क्या आज कोई है ऐसा माई का लाल जो बढ़ती हुई हिंसा, जातिभेद, गरीबी, गन्दगी, भ्रष्टाचार, चरित्रहीनता, अमानवीयता, नारी उत्पीड़न से छिन्न-भिन्न भारतीय जनमानस को पावन, पवित्र, सदाचारी, नैतिक मूल्यों व संस्कारों की निःस्वार्थ कड़ी में पिरो सके। आज सोई हुई आत्मा को झकझोरने व लालच और आज सोई हुई आत्मा को झकझोरने व लालच और लूट की चाशनी में डूबी हुई जमीर को जगाने के लिए गणतंत्र दिवस के राष्ट्रीय पर्व पर राष्ट्र निर्माण के सच्चे सपूतों की त्याग, बलिदान, निःस्वार्थ देशप्रेम की प्रस्तुति तो प्रासंगिक है। देश है, हम सबका।जनता ही है राष्ट्र की आन-बान और शान और इसी जनता को सनहरा भविष्य देने के लिए भारत माता के वीर सपूतों ने अपने प्राण दिए अनगिनत उन वीरों को शत्-शत् नमन। अनाम उन शहीदों को कोटि-कोटि आभार आप सब शहीद ही नहीं वरन् नींव है स्वतंत्र भारत के।
अल्लरी सीतारामराज
आंध्रप्रदेश के महान क्रांतिकारी अल्लूरी सीताराम राजू का जन्म 15 मई 1897 को पश्चिमी । गोदावरी जिले में एक क्षत्रिय परिवार में हुआ। उन्हें औपचारिक शिक्षा बहुत कम मिल पाई और अपने एक संबंधी के संपर्क से वे आध्यात्म की ओर आकृष्ट हुए और 18 वर्ष की उम्र में साधु बन गए। 1920 में उन पर गांधीजी के विचारों का प्रभाव पड़ा और उन्होंने आदिवासियों को मद्यपान छोड़ने तथा विवाद पंचायतों को हल करने की सलाह दी। किन्तु जब एक वर्ष मेंस्वराज्य का गांधी जी का स्वप्न साकार नहीं हुआ तो राजू अल्लूरी सीताराम अपने सशस्त्र विद्रोह करके स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने के प्रयत्न आरंभ कर दिए। आरंभ में उनका मुख्य उद्देश्य पुलिस थानों पर आक्रमण करके वहां से शस्त्रास्त्र छीनना था जिससे सशस्त्र विद्रोह को आगे बढ़ाया जा सके। 22 अगस्त 1922 से मई 1924 तक राजू के दल ने दसियों पुलिस थानों पर कब्जा करके हथियार लूट लिए पुलिस को हर बार उनकी संगठित शक्ति के सामने पराजित होकर भागना पड़ा। यहां तक कि स्थिति आ गई कि सरकार ने थानों में हथियार रखना ही बंद कर दिया।मलाबार से पुलिस बुलाई गयी पर वह भी राजू के दलों के सामने टिक नहीं सकी। अंत में सेना बुलानी पड़ी। उसने पहले राजू के प्रमुख सहयोगियों को पकड़ा और अंत में 7 मई 1924 को अल्लूरी राजू भी उनकी पकड़ में आ गए। उन्होंने सेना की पकड़ से भी निकल भागने का प्रयत्न किया तो इसी भाग दौड़ धर-पकड़ के चलते उन्हें गोली मार दी गई। इस प्रकार लगभग दो वर्षों तक ब्रिटिश सत्ता की नींद हराम करने वाला यह वीर शहीद हो गया। ब्रिटिश सत्ता के अत्याचार, अमानवीय, क्रूरता का जवाब देने वाले साहसी वीर सपूतों को देशवासियों की ओर से कृतज्ञ नमन।
झलकारी बाई
झलकारी बाई झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में महिला शाखा दर्गादल की सेनापति थीं। वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थी।इस कारणशत्रु को धोखा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं। उनका जन्म 22 नवंबर 1830 में झांसी में हुआ। वह एक स्वतंत्रता सेनानी थी। झलकारी बाई एक भारतीय महिला सैनिक थी। जिसने 1857 में झांसी युद्ध के समय भारतीय बगावत अंग्रेजों के खिलाफ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। महारानी लक्ष्मीबाई की सेना में वह एक महत्वपूर्ण पद पर आसीन थीं। झलकारी बाई का जन्म एक गरीब कोरी परिवार मेंहुआ था, वे एक साधारण सैनिक की तरह रानी लक्ष्मीबाई की सेवा में शामिल हुईं थी लेकिन बाद में वह रानी लक्ष्मीबाई की विशेष सलाहकार बनी और महत्वपूर्ण निर्णयों में भी भाग लेने लगीं। बगावत के समय झांसी के किले पर युद्ध के समय वह अपने आपको झांसी की रानी कहते हुए लड़ी ताकि रानी लक्ष्मीबाई सुरक्षित रूप से आगे बढ़ सकें। बुंदेलखंड की याद में सालों तक झलकारी बाई की महानता को याद किया जाता है उनका जीवन और विशेष रूप से ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ उनके लड़ने की कला को बुंदेलखंड ही नहीं वरन पूरा भारत वर्ष हमेशा याद रखेगा। दलित के तौर पर उनकी महानता ने उत्तरी भारत में दलितों के जीवन पर काफी प्रभाव डाला। बाद में कुछ समय ही बीता था कि ब्रिटिशों द्वारा झलकारी बाई को फांसी दे दी गई। झलकारी बाई दलितों का सम्मान और गौरव थीं। उन्हें बहुजनों की ऐतिहासिक हीरोइन कहा गया।एक नारी का स्वतंत्रता सेनानी बनकर अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राणों का उत्सर्ग वंदनीय है। झलकारी बाई देश की नारियों के शौर्य का प्रतीक हैं देश उन्हें सलाम करता है।
कन्हैयालाल माणिकलाल मुशी
कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, राजनेता, गुजराती एवं हिन्दी के प्रसिद्ध सविख्यात साहित्यकार तथा शिक्षाविद थे। उन्होंने भारतीय विद्या भवन की स्थापना की थी। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने देश के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लिया, संविधान निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। उन्होंने राज्य और केन्द्र सरकार के मंत्री उत्तरप्रदेश के राज्यपाल के रूप में काम किया। उपन्यासकार और नाटककार के रूप में भी उन्होंने बहुत ख्याति अर्जित की। भारतीय संस्कति के प्रचार-प्रसार के लिए उनके दारा स्थापित भारतीय विद्या आज भी महत्वपर्ण कार्य कर रहा है।
__श्री मुंशी जी का जन्म 30 दिसम्बर 1887 में दक्षिण गुजरात के भडौंच नगर में हुआ था।आरंभिक शिक्षा के बाद ये बड़ौदा कॉलेज में भर्ती हुए जहां उन्हें अरविन्द घोष जैसे क्रांतिकारी प्राध्यापक पढ़ाने के लिए मिले। शिक्षा पूरी कर वकालत शुरू की। अपनी सूझ-बूझ तथा कानूनी ज्ञान के कारण उनकी बहुत प्रसिद्धि हुई। वे गुजराती और अंग्रेजी के अतिरिक्त फ्रेंच और जर्मन न भाषा के भी अच्छे ज्ञाता थे।वैदिक और संस्कृत साहित्य का उन्होंने गहन अध्ययन किया था। उनका सपना था कि एक ऐसे केन्द्र की स्थापना करना जहां इस देश का प्राचीन ज्ञान और आधनिक बौद्धिक आकांक्षाएं मिलकर एक नए साहित्य नए इतिहास और नई संस्कृति को जन्म दे सकें। मंशी जी गुजरात के ही नहीं सारे देश के अमूल्य रत्न थे। उनकी विद्वता और क्रांतिकारी योगदान के लिए देश सदैव उनका ऋणी रहेगा।
रामप्रसाद बिस्मिल
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक अनवरत् कड़ी में युवा क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल का नाम बच्चा-बच्चा जानता है। उनकी देशभक्ति राष्ट्र आराधना को देश कभी भुला नही सकता है। आजादी के आदालन का क्रांतिकारी धारा के एक प्रमुख सेनानी रहे बिस्मिल को हत्यारी क्रूर ब्रिटिश सरकार ने 30 वर्ष की अल्पायु में ही फांसी दे दी। रामप्रसाद बिस्मिल 11 जन 1897 में उत्तरप्रदेश के शाहजहाँपुर में जन्म हुआ। 19 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने क्रांतिकारी मार्ग में कदम रखा था। उन्होंने अपने क्रांतिकारी जीवन में 11 वर्षों के अनुभव के साथ कई पुस्तकें लिखीं और स्वयं ही उन्हें प्रकाशित किया उन पुस्तकों को बेच कर जो पैसा मिला उससे उन्होंने हथियार खरीदे और उन हथियारों का उपयोग ब्रिटिश राज का विरोध करने के लिए किया।
का उपयोग ब्रिटिश ग्यारह पुस्तकें उनके जीवन काल में प्रकाशित हुई, जिनमें से अधिकतर सरकार द्वारा जब्त कर ली गईं थी।देश भक्ति और राष्ट्र प्रेम से भरपूर बिस्मिल के संबंध में उनके जन्म पर ज्योतिषी ने यह घोषणा की थी कि बालक के दोनों हाथों के दसों ऊंगलियों पर चक्र के निशान थे जिन्हें देखकर यह भविष्यवाणी की गई थी कि यदि यह बालक दीर्घायु रह । सका तो इसे चक्रवर्ती सम्राट बनने से दुनिया की कोई ताकत रोक नहीं सकती है। यह सच है कि रामप्रसाद बिस्मिल, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद जैसे धरती के सपूत अगर देश के कर्णधार बनते तो देश कब का पूर्ण विकसित देश बनकर विश्व का मार्गदर्शन कर रहा होता। यह विडम्बना है संस्कारवान भारत देश की इसी देश के चंद लोगों की स्वार्थपरता ने कभी भी प्रतिभाओं को उठने नहीं दिया। लालच और व्यक्तिगत सत्ता लोलुप जयचंदों ने सही वक्त पर धोखा दिया।अंग्रेजों की गुलामी के बाहरी बंधन तो जैसे तैसे टूट है पर कुछ मुट्ठी भर लोगों ने हमें आज भी अंग्रेजियत की दासता में जकड़ रखा है आज मानवता, नैतिकता, संस्कृति और अध्यात्म को आजादी नहीं मिली है। रामप्रसाद बिस्मिल जैसे नवयुवकों की ही दरकार आज देश को है। उन अमर शहीदों को शत्-शत् वंदन, वंदेमातरम्।
लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल
भारतीय इतिहास के पन्नों में कुछ नाम ऐसे अंकित किए गए हैं जिन्हें सदियों याद रखा जाएगा, उन्हें कभी भी भुलाया नहीं जा सकेगा।घृणा और क्रूरता से भरा हआ मानव अपने स्वार्थ से अत्याचार पर्ण व्यवहार करता है और अपने कुत्सित प्रयासों से स्थापित सभ्यताओं को संस्कृतियों को विध्वंस करता है। यह विडम्बना ही कहा जाएगा कि हमारा आदी सनातन सुसभ्य संस्कृति का देश जिसे 'सोने की चिड़िया' कहा जाता था उसे अंग्रेजों ने अपना गुलाम बनाकर उसे समूल नष्ट कर राज करने का सपना देखा परन्तु धन्य है वे साहसी, पराक्रमी आजादी के दीवाने जिनके शौर्य ने अंग्रेजी हुकूमत की धज्जियां उड़ा दी। उन देश भक्त परवानों में एक नाम वल्लभ भाई पटेल का भी है।
सरदार पटेल भारत की स्वाधीनता संग्राम के अमर सेनानी थे।अपने त्याग बलिदान से एक ओर जहां भारत को आजाद कराया तो वहीं दूसरी ओर देश की जर्जर हालात से भी टक्कर ली। बड़े ही साहस, धैर्य और दृढ़ संकल्प के साथ उन्होंने टुकड़े-टुकड़े में बिखरी हुई देश की खण्ड-खण्ड विरासत को एक जुट करने में प्राणप्रण से जुटे विविध गणों को एकत्र कर भारत को गणतंत्र दिया और इसी गणतंत्र से एक प्रजातांत्रिक प्रणाली के अधीन लोकतंत्रात्मक गणराज्य बना। आजाद भारत के वे प्रथम गृहमंत्री और उपप्रधानमंत्री रहे।
जब बारडोली सत्याग्रह का नेतृत्व करते हुए पटेल ने सफलता प्राप्त की तब वहां की महिलाओं ने उन्हें 'सरदार' की उपाधि प्रदान की और जब दृढ़ संकल्प के साथ एक असंभव कार्य को संभव कर दिखाया, रियासतों में बटे भारत वर्ष को एकीकरण कर उसे एक ही छत्रछाया में सम्मिलित कर दिखाया, तो उनके इस दृढ़ता को देखते हुए उन्हें लौह पुरुष की संज्ञा देश ने दिया। आज पूरा विश्व उन्हें लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल के नाम से जानता है। ऐसा दृढ़ प्रतिज्ञ सेनानी देश का प्रथम प्रधानमंत्री बनता तो आज भारत गौरवशाली राजनीतिक बुलन्दियों को छू रहा होता।